लेखनी कविता - अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे
तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर
ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे
लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज
परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे
ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू
बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे
झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले
वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे
अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी
सफ़ेद पोश उठे काएँ-काएँ करने लगे "